भारत में खेलों की दुर्दशा क्यों

वरिष्ठ खेल पत्रकार

फुटबॉल विश्वकप
दक्षिण अफ्रीका मे फुटबॉल का महाकुंभ शुरू हुआ
हर 4 साल बाद जब फ़ुटबॉल विश्वकप चैंपियनशिप का मौसम आता है तो ये सवाल अपने आप खड़ा हो जाता है कि हममें वह क़ाबिलियत क्यों नहीं.
ये सवाल हमें लगातार शर्मिंदा करता है कि हमारे कुल घरेलू उत्पाद की दर जहां दुनिया के समृद्ध देशों को भी पीछे छोड़ रही है, वहीं हम अंतर्राष्ट्रीय खेलों के पहले पायदान पर भी नहीं पहुंच पाए.
आरोप प्रत्यारोप के इस चक्र में शक की सुई घूम कर जाती है, खेल अधिकारियों की ओर, जिन्होंने खेल का स्तर सुधारने की तरफ़ ध्यान ही नहीं दिया.
खेल संगठनों में पनपते भाई-भतीजावाद, भ्रष्टाचार और निहित स्वार्थ के कारण एक अरब से ज्यादा की हमारी आबादी मात्र दर्शक बनी रह गई.
आंकड़ों को देखा जाए, तो दुनिया भर में, खेलों की लोकप्रियता बढ़ाने में हमारा सबसे बड़ा योगदान है.
लेकिन भारत में कितने खिलाड़ी हैं और कितने दर्शक, ये अंतराल भी दुनिया के किसी और देश मे नहीं होगा.
हर 4 साल बाद जब ओलंपिक खेलों का मौसम आता है, और बातें छिड़ती हैं कि कौन सा देश कितने पदक ले जाएगा, तब भी यही सवाल हमारे सामने फिर आ खड़ा होता है कि हम में वह काबिलियत क्यों नहीं.
सौभाग्य से हमें अभिनव बिंद्रा मिल गए, जिनकी वजह से ओलंपिक में स्वर्ण पदक न जीत पाने की शर्मिंदगी कम हुई, लेकिन खेलों के औसत स्तर को आज भी न छू पाने का मलाल तो अपनी जगह रहेगा ही.
इस सवाल का जवाब काफ़ी जटिल है, और यहां इसकी परतों को खोलने की कोशिश करना भी बेकार होगा.
क्रिकेट की जहां तक बात है, दुनिया भर में बनी अपनी छवि पर हम गर्व कर सकते हैं.
लेकिन ये तथ्य भी हमारी शर्मिंदगी को कम नहीं कर सकता, क्यों कि दुनिया के कुल 8 देश इस खेल में अपना हाथ आज़माते हैं.
पिछड़ने के कारण
मेरे विचार में खेलों की दुनिया में हमारे पिछड़ने के कई कारण हैं.
आम तौर पर अनदेखा कर दिया जाने वाला एक बड़ा कारण है, आर्थिक विकास में असंतुलन.
इसी आर्थिक असंतुलन की वजह से हमारा वर्गीकृत समाज, सदियों से अपने ही लोगों को हेय समझता रहा है.
ये वर्गीकृत समाज उनके विकास के बारे में सोचने की ज़रूरत भी नहीं समझता.
भोपाल गैस त्रासदी को ही लीजिए.
अगर निम्न मध्यवर्ग और झोंपड़ पट्टी की जगह किसी आधुनिक शहर के किसी संभ्रांत इलाके के 20 हज़ार लोग मारे गए होते, तो हमें ये जानने में, 25 साल नहीं लगते कि सत्ता में बैठे लोग किस सीमा तक संवेदना हीन और गुटबजाज़ होकर न्याय की कमर तोड़ सकते हैं
इससे पहले, कि आप मेरी इस पूर्व धारणा पर सवाल खड़ा करें कि इन बातों का खेल से क्या संबंध, मैं बचाव में कुछ तथ्य रखना चाहूंगा.
दुनिया भर में ज़्यादातर खिलाड़ी निम्न मध्यवर्ग से आते हैं.
गांवों और क़स्बों से आए हुए ये ग़रीब लोग खेलों मे प्रशिक्षण लेते हैं, उन्हें सारी सहूलियतें मिलती है, एक व्यवस्था होती है, जहां कोई ‘अपना एक अलग वर्ग’ नहीं बना सकता.
खेलों ने, दुनिया से भेदभाव हटा कर उसे सिर्फ़ एक वर्ग में समेट लिया है और ये तथ्य फ़ुटबॉल में सबसे ज़्यादा सही साबित हुआ है.
एक कुपोषित राष्ट्र की जगह, एक समानतावादी समाज में खेलों के चैंपियन के पैदा होने के अवसर सबसे ज़्यादा होते हैं.
Enhanced by Zemanta

Read Users' Comments (1)comments

1 Response to "भारत में खेलों की दुर्दशा क्यों"

  1. altamash_khan says:
    June 29, 2010 at 12:24 AM

    its very nice

Post a Comment